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“आयुष आयुष” वो चीख चीख कर
पुकार रहे थे, गिड़गिडा रहे थे| उम्मीद तो यही थी की आयुष उठेगा और उनकी इन दर्द से
लथपथ चीखों पर अपनी प्यार भरी मुस्कान का मलहम लगाएगा, लेकिन अब कहाँ उठ पायेगा
वो| जब उठाना चाहता था तब इन्ही लोगों ने ही तो उसके हौसलों की फसल काट दी थी| जब
उड़ना चाहता था तब इन्ही लोगों ने ही तो उसके नाजुक पंखों पर अपनी ख्वाहिशों का बोझ
डाल दिया था| नहीं उठा पाया वो यह बोझ, नहीं झेल पाया वो उनके स्वार्थी सपनों को|
हार गया वो, और जीत गये ये लोग| और नसीब भी तो देखो इन लोगों के जीतने के बाद भी
तो इन्हें मिला क्या? आँसू, दर्द और एक लाश!
ये ही पाने की चाहत तो थी
ना उन लोगों की| वो रोता रहा, वो इन से प्रार्थना करता रहा की नहीं कर पायेगा वो
ये इंजीनियरिंग, वो नहीं बना है ये करने के लिए| उसकी तो मंज़िल कही दूर ही थी| उसकी
दुनिया ही अलग थी| जहाँ पहुँचना लोगों की चाहतों में ही रह जाता है, उस मंज़िल की
तरफ चल पड़ा था वह, अपने दिल की राह पर जहाँ उसका हुनर उसका इंतज़ार कर रहा था|
लेकिन किस्मत को कहाँ कुछ मंज़ूर था| ये ऊपर वाला भी जाने कैसे कैसे खेल खेलता है|
जिसे अपनी मंज़िल साफ़ दिखाई देती है, उसी से उसकी किस्मत चुरा लेता है|
चित्रकार बनना चाहता था वो|
हर चीज़ को एक अलग ही नज़रिए से देखता था वो| और फिर बना देता था अपनी सोच की अलग
दुनिया| कर देता था अपनी सोच का चित्रण एक कागज के टुकड़े पर| यही उसका जुनून था|
यही थी वो दुनिया, जहाँ का राजा था वो| यहीं थी उसकी मंज़िल और यहीं बसता था उसका
खुदा| लेकिन इस दुनिया को उसकी ये ख्वाहिश गवारा कहाँ थी?
दूसरों की सफलता को देख कर
उन्होंने उसे भी उसी राह पर अपने कदम बढ़ाने को बोला| वह नहीं माना, जानता था वो की
अगर वह उनकी बताई हुई राह पर चल दिया तो बर्बाद हो जायेगा उसका जीवन, ख़त्म हो
जाएगी उसकी दुनिया और रूठ जायेगा उसका ये हुनर उससे| लेकिन वे लोग कहाँ मान ने
वाले थे| ले गये उसे वे, उसकी मंज़िल से दूर और छोड़ दिया उसे एक ऐसे जहाँन में
जिसके बारे में ना तो उसकी कोई कल्पना थी और ना ही कोई विचार|
उनका दिखाया हुआ पथ उसके
जीवन को एक ऐसी दलदल में धकेल रहा था, जहाँ उसके लिए अगर कुछ था तो वह था, अँधेरा|
ना चाहते हुए भी अपनी चाहत से दूर चलता चला जा रहा था वह| गिले शिकवे बहुत थे,
लेकिन शिकायत करे भी तो किसे करे? रोये और गिडगिडाए भी तो किस के आगे? चेहरे की
मुस्कान तो मानो रूठ सी गयी थी उसकी| जीवन में अगर कुछ बाकी था तो वे थे बीते दिनों
के हसीं पल और वर्तमान का तिलमिलाता हुआ यह दर्द|
फिर एक दिन, जब रोशनी का
सूरज ढल रहा था, साथ में ले जा रहा था वह उसकी उम्मीदों की किरणें| छत पर बैठा हुआ
था वह| अपने घर से कोसों दूर, हिम्मत टूटी हुई थी और हौसला पस्त था, फिर भी उस
ढलते हुए सूरज को रोकना चाहता था, उस डूबती हुई उम्मीद को कहना चाहता था की रुक
जा, थम जा, एक दिन सब सही हो जायेगा| लेकिन ना तो रुका वो सूरज और ना ही रुकीं वे
किरणें| जैसे सूरज से एक लगाव सा था उन किरणों को, सूरज के जाते ही उसके पीछे पीछे
बहती चलीं गयीं वे भी| उसके देखते ही देखते एक अंधेरा सा छा चुका था| और इस बार भी
वह कुछ न कर सका| अपनी ज़िन्दगी की इस गाड़ी पर लगाम लगाना चाहता था वह| कर देना
चाहता था वह सब कुछ ख़त्म|
और फिर बैठा वह अपनी
ज़िन्दगी का एक आखिरी चित्र बनाने के लिए| चित्र जिसमें एक तरफ सूरज था और एक तरफ
वह| चित्र जिसमें एक तरफ रात के साए में लुप्त होते हुए वे परिंदे थे और एक तरफ
उन्ही परिन्दों की तरह गायब सा हो रहा उसका अस्तित्व| चित्र जिसमें ढलते हुए सूरज
की इस आकाश को भेंट की हुई वह ललाई थी, और चित्र जिसमें उसकी खोती हुई परछाई थी|
“बस अब और नहीं” वह बोला
खुद से| पहली बार वह किसी चित्र को पूरा नहीं कर पाया| उसने उठाया एक कागज़ और एक
कलम और उस कागज़ की टुकड़े पर उतारने ने लग गया वह अपने गम...
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प्रिय माता पिता,
पता नहीं इसे पढते हुए आप
कैसा महसूस कर रहे होंगे, पता नहीं मैं उस वक्त आपसे कितना दूर जा चुका होंगा,
शायद इतनी दूर जहाँ से ना मैं कभी लौट भी ना पाँऊ और इतना दूर जहाँ से आप भी कभी
मुझे वापस ना ला पायें| मैं कभी भी वैसा ना था जैसा आप मुझे देखना चाहते थे| जीता
तो था मैं इस दुनिया में, लेकिन जान मेरी बस रही थी मेरे उन चित्रों में| मैं
दूसरे बच्चों की तरह होशियार नहीं था| उनकी तरह किताबों में नहीं लगता था मेरा मन|
मेरी सोच और मेरी कला, ये ही दोनों तो मुझे कहीं और ही ले जाना चाहते थे| और इन्ही के भरोसे
जीना चाहता था मैं अपनी ज़िन्दगी| नहीं हो पाती थी मुझसे ये पढ़ाई| नहीं बन सकता था
मैं आपका लायक बेटा| नहीं झेल पा रहा था मैं आपके ये बड़े बड़े सपने| नहीं रख पा रहा
था मैं खुद को जिंदा इस प्रतियोगी माहौल में| टिकने की कोशिश की थी मैंने लेकिन
नहीं टिक सका मैं|
आपकी उम्मीदों का सूरज आज
आपनी आखिरी किरणें बिखेर चुका था| थक चुका था वह जलते जलते, रोकना चाहता था वह सूरज
खुद को इसी माहौल में लेकिन नहीं बना था वह इस के लिए| इसलिए आज इस चंगुल से मुक्त
होने की क़वायद कर चुका था वह| और वह जलता सूरज अपनी आत्मा में लगी हुई आग से उस पर
बीती हुई कहानी को भी जला के राख कर रहा है|
गलती ना आपकी थी और ना ही
मेरी| गलती तो है इस सिस्टम की, गलती है इस प्रतियोगिता की चादर के नीचे ढकती हुईं
कला की, गलती है इस माहौल की जहाँ हर इंसान खुद के सपने दूसरों पर थोपना चाहता है|
गलती है उस सोच की जहाँ सफल बनने के लिए एक ही काम करना ज़रूरी होता है| गलती है
इन् लोगों की जो एक पंक्षी और एक मछली को एक ही तराज़ू पर तोलना चाहते हैं| हाँ ये
सब गलत हैं| पैसा पाने की चाहत में हुनर की हत्या हो रही है| मैं आवाज उठाना चाहता
था लेकिन आप के सपनों के शोर के आगे दब गयी थी वह आवाज| आपकी बदनामी के डर के कारण
मुझे आज ये कदम उठाना पड़ रहा है|
हाँ पता है मुझे की कायर
करते हैं ये सब| और मुझे ये भी पता है की मैं कायर हूँ, डरपोक हूँ मैं, डरता हूँ
मैं, कहीं मेरी वजह से आपका सर समाज में ना झुक जाए, कहीं मेरे कारण आप किसी के
आगे सर उठा के बात ना कर पाएँ| नहीं देखना चाहता मैं ये सब| पापा के वे शब्द मुझे
याद हैं जब उन्होंने अपने मित्र को बोला था की मेरा बेटा आपके बेटे की तरह ही इंजीनियर
बनेगा, नहीं नष्ट करना चाहता था मैं उन शब्दों का मान| और यही थी मेरी कायरता कि
नहीं लड़ सकता था मैं आपसे|
माँ, मुझे आज भी याद है जब
भी मेरी तबियत ख़राब होती थी, तो आप कैसे रात भर मेरे बगल में बैठ के मेरा ध्यान
रखती थीं, कैसे मेरे तपते हुए शरीर पर ठण्डे पानी की पट्टियाँ रखा करतीं थीं आप|
मुझे आज भी याद है जब मेरी परीक्षा के समय मुझे रात में भूख लगती थी तो कैसे आप
आधी रात में खाने के लिए कुछ बनाया करतीं थीं| कैसे मेरी हर पूरी होती हुई इच्छा
के पीछे आपकी ख़ुशी के आँसू छुपे हुए होते थे| आज वो सब बस यादों में ही रह गया है|
आज में इन आखिरी पलों में आपको देखना चाहता हूँ, आपको गले लगा के मन भर के रोना
चाहता हूँ| लेकिन नहीं अब कुछ नहीं| मिलूँगा ज़रूर आपसे लेकिन कभी और, जब मैं आपका
लायक बेटा बन के आऊंगा|
यही थी मेरी कहानी, और यहीं
है मेरे आखिरी शब्द, शब्द जो चीख चीख के बयाँ कर रहे हैं मेरी ज़िन्दगी के ज़ख्मों
को, और मेरे जैसे ना जाने कितने ही होंगे जो हार मान चुके होंगे, मेरे जैसे ना
जाने कितने ही होंगे जिन्हें ये सिस्टम की शिष्टता मंज़ूर नहीं, हार चुके होंगे वे
सब भी, और उन्ही की तरह हार चुका हूँ मैं. ..
अलविदा
आपका अधूरा ख्वाब,
आयुष
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बाकी तो बस अधूरी कहानी की
अनकही दास्ताँ है, रोते हुए माँ बाप, सामने पड़ी हुई बेटे की लाश, शोक में डूबा हुआ
समाज, उसके भाई के हाथ में रखा हुआ उसका वह आखिरी ख़त, ख़त के नीचे लगा हुआ वह अधूरा
चित्र, चित्र में छपा हुआ वह आखिरी ख्वाब और उन ख्वाबों से निकलती हुई वह आखिरी
चीख...
bisi... kya gazab hutiya h.... :3
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